व्याकरणशास्त्र में नवीन उद्भावना
लौकिक, वैदिक उभय शब्दों का साधक होने के कारण वेदों की रक्षा का उपायभूत पाणिनीय व्याकरणशास्त्र सारे वेदाङ्गों में प्रधान है। इसे पढ़ने की दो पद्धतियाँ प्रचलित हैं। एक पद्धति है, पाणिनीय अष्टाध्यायी के सूत्रों के अर्थों को पाणिनीय अष्टाध्यायी के ही क्रम से पढ़ना। इस पद्धति में यह दोष है कि प्रक्रिया को जानने के लिये पूरी अष्टाध्यायी को जानना पड़ता है। साथ ही इसमें अनेक प्रकरणों का व्यामिश्रण हो जाता है,
अधिकार, अनुवट्ठत्ति और सूत्रों का पूर्वापर विज्ञान 'अष्टाध्यायी' के प्राण हैं। दूसरी पद्धति है प्रक्रियापद्धति। इसमें एक लक्ष्य को लेकर सूत्र उपस्थित किये जाते हैं। इससे वह लक्ष्य तो सिद्ध हो जाता है, किन्तु सूत्र का शेष भाग अव्याख्यात ही रह जाता है। प्रक्रियाग्रन्थ पहिले 'प्रयोग' को सामने रख लेते हैं। उस प्रयोग के लिये सारे सूत्र लाकर वहाँ खड़े कर देते हैं। इससे 'अष्टाध्यायी' की व्यवस्था भग्न होती है और 'अधिकार सूत्रों' का मर्म स्पष्ट नहीं हो पाता।
अतः इन दो पद्धतियों के रहते हुए 'पाणिनीय अष्टाध्यायी' के विज्ञान को स्पष्ट करते हुए एक प्रयोग को बनाने की प्रक्रिया बतलाकर उसके समानाकृति सारे प्रयोगों को उसी स्थल पर दर्शाकर इदमित्थम् बतला देने वाली एक पद्धति अभीष्ट थी, जिससे समग्र 'अष्टाध्यायी' अत्यल्प काल में हृद्गत हो सके। इस तीसरी पद्धति का आविष्कार आचार्या पुष्पा दीक्षित ने किया है। वस्तुतः पाणिनि का शास्त्र गणितीय विधि पर आश्रित है, और पुष्पा दीक्षित ने उस विधि का आविष्कार किया है, अतः पाणिनीय व्याकरण पर पुष्पा दीक्षित का यह कार्य वस्तुतः एक बड़ी क्रान्ति है।